जब कभी मैंने कही कुछ टूटे बिखरे से ख्वाब देखे
ऐ जिन्दगी वही तेरे कदमो के निशा देखे
समेट कर ख्वाबो को सारे एक बच्चे की मानिंद
जोड़ कर देखा तो बस खुद को मुस्कुराता पाया
जिन्दगी तू गर एक पहेली थी तो कोई तो तेरा हल भी होता
जब कभी सुलझाने बेठा तो खुद को और उलझता पाया
माना की नहीं रोक सकता गुजरते वक्त के कारवा
कल को सवारने की कोशिश में आज को बिखरता पाया
लोग कहते है मुझे तू निकल के यादो से बाहर भविष्य सवार ले
क्या कहू दोस्त मैंने तो अपने माझी में ही खुद को दफ़न पाया
रोक न सका उसे जाते हुए लम्हों की तरह
डूबती हुई उस आवाज़ से खुद को भी डूबता पाया
माना के बहुत खुबसूरत होती जिन्दगी साथ तेरे
मुद्दतो बाद भी लेकिन तुझ को खुद में धड़कता पाया
बदल कर रास्ता जिन्दगी का जब भी बढाया एक कदम
क्यों होता है .हर बार सामने से मेरे उस का गुजर जाना
मौत को मालूम है जिन्दगी की है यही फिदरत
क्यों कर आती गर आसा होता यु सब कुछ बदल जाना
मेरे माझी ने मुझे दिया है इतना तो अहसास
शैलेश को तनहा तो किया ...हर बार उसे मुस्कुराता पाया
hahaaaaaaa what a poetry..heart touching yaar...ekdum jindadili ki misaal hai...
ReplyDeletebahut kub
ReplyDeleteआप का बलाँग मूझे पढ कर आच्छा लगा , मैं बी एक बलाँग खोली हू
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
माना के बहुत खुबसूरत होती जिन्दगी साथ तेरे
ReplyDeleteमुद्दतो बाद भी लेकिन तुझ को खुद में धड़कता पाया
Bahut Acchi rachna shailesh ji ...
bhaut hi khub....
ReplyDeleteसुन्दर रचना....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
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